कुछ बूंदें सागर से
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रक्तरंजित यह धरा और बहती अश्रुधार
फैलीं भुजाएं आतंकी करती नरसंहार
कितना विषैला कितना अशुद्ध….यह मज़हबी युद्ध
नौजवां पथभ्रष्ट करते अनिष्ट
बांध बारुद छाती हुए आत्मघाती
क्यूँ अमन के विरुद्ध….यह मज़हबी युद्ध
धर्म के ठेकेदार कर रहे व्यापार
बनकर बिचौली खेलें खूनी होली
समझें अनिरुद्ध…. यह मज़हबी युद्ध
न देश न समाज न माँ की चीत्कार
धर्म और ईमान चन्द नोटों के गुलाम
प्रभु रुष्ट अल्लाह भी क्रुद्ध….यह मज़हबी युद्ध
न भगवां न हरा न ही श्वेत यह ख़रा
रंग जो विनाश का सिर्फ़ सुर्ख लाल सा
जन निराश शांत जैसे बुद्ध….यह मज़हबी युद्ध
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